रविवार, 1 सितंबर 2019

प्रणेभ्यो$पि प्रियः सुहृद पाठ का हिंदी अर्थ

चाणक्य - पुत्र ! जौहरी सेठ चंदन दास को अभी
             देखना चाहता हूँ।
शिष्य -  ठीक है ।
  (निकलकर चंदन दास के साथ प्रवेश करके )  
    इधर - इधर सेठ जी !
      (दोनों घूमते हैं )
शिष्य - (पास जाकर) आचार्य ! यह सेठ चंदन 
          दास हैं।
चंदनदास - आर्य की जय हो।
चाणक्य - सेठ! तुम्हारा स्वागत है । क्या व्यापार
             के बढ़ने से लाभ में वृद्धि हो रही है ?
चंदनदास - (मन में ) अधिक आदर शंका के
               योग्य है । (प्रकट रूप में) और क्या।
              आर्य की कृपा से मेरा व्यापार परिपूर्ण
              है।
चाणक्य - हे सेठ ! प्रसन्न स्वभाव वालों से राजा
             लोग उपकार के बदले प्रति उपकार
             चाहते हैं।
चंदनदास - आर्य आज्ञा दें, मुझ जैसे व्यक्ति से
              क्या और कितना आशा करते हैं ?
चाणक्य - हे सेठ! यह चंद्रगुप्त का राज्य है, नंद
             का राज्य नहीं । नंद का (के राज्य में )
            ही धन का संबंध प्रेम उत्पन्न करता है।
            चंद्रगुप्त का (के राज्य में ) तो आपके
            सुख से ही (प्रेम रखा जाता है)
चंदनदास - (प्रसन्नता के साथ) हे आर्य! मैं
              आभारी हूँ।
चाणक्य - हे सेठ! और वह सुख कैसे उत्पन्न
             होता है ? यही आपसे  पूछने योग्य
             है ।
चंदनदास - हे आर्य ! आज्ञा दें।
चाणक्य - राजा के लिए अनुकूल व्यवहार वाले
             बनो।
चंदनदास - आर्य!  फिर कौन अभागा राजा के
              विरुद्ध है । ऐसा आर्य के द्वारा (किसे)
              समझा जाता है।
चाणक्य - तो सबसे पहले आप ही हैं।
चंदनदास - (कानों को बंद करके)  क्षमा कीजिए
              क्षमा कीजिए।  तिनकों का अग्नि के
              साथ कैसा विरोध ?
चाणक्य - यह ऐसा विरोध है कि तुम आज भी
             राजा का बुरा करने वाले मंत्री राक्षस
            के घरवालों को अपने घर में रखते हो।
चंदनदास - हे आर्य ! यह झूठ है। किसी दुष्ट ने
             आर्य को (गलत) बताया है।
चाणक्य - हे सेठ ! शंका मत करो । भयभीत
             भूतपूर्व राज पुरुष नगर वासियों की
             इच्छा से भी ( उनके ) घरों में
            परिवारजनों को रखकर दूसरे देश चले
            जाते हैं । इससे उन्हें छिपाने का दोष
            उत्पन्न होता है।
चंदनदास - निश्चित रूप से ऐसा ही है । उस
              समय हमारे घर में मंत्री राक्षस का
              परिवार था।
चाणक्य - पहले 'झूठ' अब 'था' (ये दोनों )
             आपस में विरोध वचन हैं।
चंदनदास - आर्य ! उस समय हमारे घर में मंत्री
              राक्षस का परिवार था।
चाणक्य - अब इस समय कहाँ गया ?
चंदनदास - नहीं जानता हूँ।
चाणक्य - नाम (स्थान का ) कैसे नहीं जानते
             हो? हे सेठ!  सिर पर भय है। उसका
             समाधान बहुत दूर है।
चंदनदास - हे आर्य ! क्या मुझे भय दिखा रहे
               हो ? मंत्री राक्षस के परिवार के घर में
               होने पर भी मैं (उन्हें) समर्पित नहीं
               करता फिर (उनके) न  होने पर तो
              बात ही क्या है ?
चाणक्य - हे चंदनदास! (क्या) यहीं तुम्हारा
              निश्चय है ?
चंदनदास - हाँ, यहीं मेरा निश्चय है।
चाणक्य - ( अपने मन में ) बहुत अच्छा चंदन
               दास बहुत अच्छा।। 

दूसरे की वस्तु को समर्पित करने पर धन का लाभ सरल होने पर इस समय भी शिवी राजा के बिना संसार में यह कठिन कार्य और कौन कर सकता है ?

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