मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

Aadhyatm katha -2

उन्नीस सौ छत्तीस में अमरीका में एक आदमी था, लूथर दरबांग। वह नोबल प्राइज विनर था। वह कोई रामकृष्ण जैसा अपढ़ संन्यासी नहीं था। और न रामकृष्ण जैसा कोई पागल आदमी था। लूथर दरबांग नोबल प्राइज विनर था। लूथर दरबांग ने जिंदगी भर पौधों के पास ही अपनी जिंदगी बिताई। वह पौधों की खोज ही करता रहा। उसकी खोज इतनी बढ़ गई और उसका पौधों से इतना संबंध हो गया कि उसकी पत्नी उसे छोड़ कर चली गई। उसने कहा कि क्या पागलपन मचा रखा है, मैं बैठी हंू और तुम अपने पौधों से बात कर रहे हो, तुम्हारा दिमाग ठीक है? लूथर दरबांग पौधों से बात करने लगा। अब यह पागलपन का लक्षण है। उसका पौधों से प्रेम हो गया। वह पौधों से बात-चीत, हाल-चाल पूछने लगा, सुबह उठ कर पौधों से कि कहो कैसे हो, कल तबीयत खराब थी, ठीक है न? तो पत्नी तो, ऐसे पति के पास पत्नी रुके? वह गई, उसने कहा कि यह क्या पागलपन है? मुझसे तो कभी पूछते नहीं हो कि तबीयत कैसी है पौधे से तुम पूछ रहे हो? पौधों से पूछने का मतलब? मित्रों ने दरबांग को समझाया कि मालूम होता है तुम्हारा दिमाग खराब हुआ जा रहा है। मालूम होता है ज्यादा दिमाग से श्रम करने के कारण तुम पागल हुए जा रहे हो।
दरबांग ने कहाः दिमाग से काम बंद हो गया है। अब मैं पूरे प्राणों से काम कर रहा हूं। लेकिन कौन माने। तो दरबांग ने कहा कि कैसे तुम मानोगे? लेकिन उसने कहाः तुम सोचते हो? मित्रों ने कहाः सोचते हो, पौधे तुम्हारी सुनते हैं? तो दरबांग ने कहा कि सुनते हैं। क्योंकि पौधों ने मुझे नमस्कार दी है। जब मैंने पौधों से कहाः कैसे हो? तो पौधों ने कहाः ठीक हैं, खुश हैं। मित्रों ने कहाः हमने तो कभी नहीं सुना। अब तो पक्का है कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। तुम कोई प्रमाण दे सकते हो? दरबांग ने एक प्रमाण दिया जो अमरीका में घटित हुआ। और वह प्रमाण बहुत अदभुत था।
दरबांग एक कैक्टस के पौधे के पास सात साल तक मेहनत करता रहा। और उस कैक्टस के पौधे में बिना कांटे की डाल नहीं होती, शाख नहीं होती। वह उस पौधे से रोज कहता कि कृपा कर और एक ऐसी शाखा निकाल दे जिसमें कांटे न हों ताकि मित्रों को भरोसा आ जाए कि तूने मेरी सुन ली। सात साल, असल में सात साल सिर्फ प्रेम ही इस तरह के प्रयोग कर सकता है। क्योंकि प्रेम बिलकुल पागल है न। इतना सात साल तक कौन करेगा? सात दिन मुश्किल, सात मिनट मुश्किल है। सात दिनों में यह भरोसा आ जाएगा कि यह नहीं होने वाला। लेकिन दरबांग सात साल तक कहता रहा कि तू कृपा कर और एक शाखा निकाल दे जिसमें कांटे न हों, ताकि मैं भरोसा दिला दूं कि इसने मेरी सुन ली। और सात साल बाद उस पौधे में एक शाखा आ गई जिसमें कांटे नहीं थे। अब दरबांग वैज्ञानिक न रहा प्रेमी हो गया।
अब दरबांग परमात्मा को जान सकता है। प्रेम ही जानने का एक गहरा ढंग है। और जिसको हम ज्ञान कहते हैं वह ऊपर-ऊपर घूमता है। और जिसको हम प्रेम कहते हैं वह भीतर प्रवेश कर जाता है। जब हम एक व्यक्ति को जानने जाते हैं तो हम उसके चारों तरफ घूमते हैं।
अंग्रेजी में एक शब्द है एक्वेंटेंस, परिचय। जब हम एक आदमी को जानते हैं तो हम उसके आस-पास घूमते हैं, हम पूछते हैं, तुम्हारे पिता का नाम क्या है? तुम्हारी तनख्वाह क्या है? कहां रहते हो? यह सब आस-पास घूमना है। इसमें उस व्यक्ति के बाबत कुछ नहीं। पिता कौन है? नौकरी क्या है? घर कहां है? गांव क्या हैै? जाति क्या है? धर्म क्या है? हम उसके आस-पास घूम रहे हैं। हम उसके आस-पास चक्कर लगा रहे हैं। यह एक्वेंटेंस, परिचय है। लेकिन उस व्यक्ति से आपका प्रेम हो जाए तो पिता कौन कोई मतलब नहीं। जाति कौन कोई मतलब नहीं। कभी किसी ने पूछ कर प्रेम किया है कि मुसलमान हो तब प्रेम करेंगे, कि हिंदू हो तब प्रेम करेंगे। नहीं, प्रेम हो जाए तो सीधा हम उस व्यक्ति से संबंधित हो जाते हैं। न हम पूछते हैं कि पिता कौन है, न जाति, न धर्म, न ठिकाना, न पता, सब खत्म, सीधे प्रवेश कर जाते हैं उस व्यक्ति में। उस व्यक्ति से ही जुड़ जाते हैं।
प्रेम ही जानने का गहरा ढंग है। सच तो यह है कि प्रेम ही जानने का गहरा ढंग है। प्रेम ही ज्ञान है। और प्रेम के अतिरिक्त जो ज्ञान है वह सब उधार, बासा है। जिन्होंने जाना है उन्होंने प्रेम से जाना है। और वह प्रेम से जाने हुए लोगों की बातों को जो दोहरा रहे हैं उन्होंने जाना नहीं है। इसलिए मैंने ज्ञान की बात नहीं की, लेकिन जो समझेंगेे वे समझ जाएंगे|

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