गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

Adhyatm katha -12

एक संन्यासी ईश्वर की खोज में निकला हुआ था
और एक आश्रम में जाकर ठहरा।

पंद्रह दिन तक उस आश्रम में रहा,
फिर ऊब गया। उस आश्रम का जो बूढ़ा गुरु था
वह कुछ थोड़ी सी बातें जानता था,
रोज उन्हीं को दोहरा देता था।

फिर उस युवा संन्यासी ने सोचा,
यह गुरु मेरे योग्य नहीं, मैं कहीं और जाऊं।
यहां तो थोड़ी सी बातें हैं, उन्हीं का दोहराना है।
कल सुबह छोड़ दूंगा इस आश्रम को,
यह जगह मेरे लायक नहीं।

लेकिन उसी रात एक घटना घट गई कि
फिर उस युवा संन्यासी ने जीवन भर वह आश्रम नहीं छोड़ा।
क्या हो गया?
रात एक और संन्यासी मेहमान हुआ।
रात आश्रम के सारे मित्र इकट्ठे हुए,
सारे संन्यासी इकट्ठे हुए,
उस नये संन्यासी से बातचीत सुनने।

उस नये संन्यासी ने बड़ी ज्ञान की बातें कहीं,
उपनिषद की बातें कहीं, वेदों की बातें कहीं।
वह इतना जानता था,
इतना सूक्ष्म उसका विश्लेषण था,
ऐसा गहरा उसका ज्ञान था कि दो घंटे तक वह बोलता रहा।
सबने मंत्रमुग्ध होकर सुना।

फिर उस युवा संन्यासी के मन में हुआ :
गुरु हो तो ऐसा हो। इससे कुछ सीखने को मिल सकता है।
एक वह गुरु है, वह चुपचाप बैठा है,
उसे कुछ भी पता नहीं।

अभी सुन कर उस बूढ़े के मन में बड़ा दुख होता होगा,
पश्चात्ताप होता होगा, ग्लानि होती होगी—कि मैंने कुछ न
जाना और यह अजनबी संन्यासी बहुत कुछ जानता है।

युवा संन्यासी ने यह सोचा कि आज
वह बूढ़ा गुरु अपने दिल में बहुत—बहुत दुखी,
हीन अनुभव करता होगा।
तभी उस आए हुए संन्यासी ने बात बंद की
और बूढ़े गुरु से पूछा कि आपको मेरी बातें कैसी लगीं?

बूढ़ा गुरु खिलखिला कर हंसने लगा और कहने लगा,
तुम्हारी बातें? मैं दो घंटे से सुनने की कोशिश कर रहा हूं
तुम तो कुछ बोलते ही नहीं हो।
तुम तो बिलकुल बोलते ही नहीं हो।

वह संन्यासी बोला,
दो घंटे से मैं बोल रहा हूं आप पागल तो नहीं हैं!
और मुझसे कहते हैं कि मैं बोलता नहीं हूं।

उस ने कहा, हां, तुम्हारे भीतर से गीता बोलती है,
उपनिषद बोलता है, वेद बोलता है,
लेकिन तुम तो जरा भी नहीं बोलते हो।
तुमने इतनी देर में एक शब्द भी नहीं बोला!
एक शब्द तुम नहीं बोले, सब सीखा हुआ बोले,

सब याद किया हुआ बोले,
जाना हुआ एक शब्द तुमने नहीं बोला।
इसलिए मैं कहता हूं कि तुम कुछ भी नहीं बोलते हो,
तुम्हारे भीतर से किताबें बोलती हैं।

एक ज्ञान है जो उधार है, जो हम सीख लेते हैं।

ऐसे ज्ञान से जीवन के सत्य को कभी नहीं जाना जा सकता।
जीवन के सत्य को केवल वे जानते हैं
जो उधार ज्ञान से मुक्त होते हैं।
और हम सब उधार ज्ञान से भरे हुए हैं।
हमें ईश्वर के संबंध में पता है।
और ईश्वर के संबंध में हमें क्या पता होगा
जब अपने संबंध में ही पता नहीं है?

हमें मोक्ष के संबंध में पता है।
हमें जीवन के सभी सत्यों के संबंध में पता है।
और इस छोटे से सत्य के संबंध में पता नहीं है जो हम हैं!
अपने ही संबंध में जिन्हें पता नहीं है,
उनके ज्ञान का क्या मूल्य हो सकता है?

लेकिन हम ऐसा ही ज्ञान इकट्ठा किए हुए हैं।
और इसी ज्ञान को जान समझ कर जी लेते हैं और नष्ट हो जाते हैं। आदमी अज्ञान में पैदा होता है और मिथ्या ज्ञान में मर जाता है,
ज्ञान उपलब्ध ही नहीं हो पाता।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं
एक अज्ञानी और एक ऐसे अज्ञानी जिन्हें ज्ञानी होने का भ्रम है। तीसरी तरह का आदमी मुश्किल से कभी—कभी जन्मता है। लेकिन जब तक कोई तीसरी तरह का आदमी न बन जाए,

तब तक उसकी जिंदगी में न सुख हो सकता है,
न शांति हो सकती है। क्योंकि जहां सत्य नहीं है,
वहां सुख असंभव है। सुख सत्य की छाया है।

जिस जीवन में सत्य नहीं है, वहां संगीत असंभव है,
क्योंकि सभी संगीत सत्य की वीणा से पैदा होता है।

जिस जीवन में सत्य नहीं है,
उस जीवन में सौंदर्य असंभव है;

क्योंकि सौंदर्य वस्त्रों का नाम नहीं है
और न शरीर का नाम है।

सौंदर्य सत्य की उपलब्धि से पैदा हुई गरिमा है।
और जिस जीवन में सत्य नहीं है,
वह जीवन अशक्ति का जीवन होगा,
क्योंकि सत्य के अतिरिक्त और कोई शक्ति दुनिया में नहीं है।

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