बहुरूपिया और संत !!!!
प्रेरक कहानी, अवश्य पढ़ें :------
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एक राजा के दरबार में एक बहुरूपिया था (पुराने समय में कुछ लोग ऐसा करते थे, वे समय समय पर अलग अलग वेश जैसे कभी हनुमान, कभी काली, कभी शंकर आदि का मेकअप कर के लोगों का मनोरंजन कर, उनसे इनाम लेकर पैसे कमाते थे।
ऐसा ही एक बहुरूपिया, राजा के दरबार में था जो समय समय पर, तरह तरह के वेश बनाकर, राजा और दरबारियों का मनोरंजन करता था और इनाम पाता था।
ऐसे ही एक दिन की बात है जब बहुरूपिया राजा के दरबार में कोई स्वांग बनाकर गया, प्रसन्न होकर राजा ने उसे 5 ₹ इनाम दिया पर राजा ने उस बहुरूपिये से कहा,
" सुन ! तू अक्सर कोई न कोई स्वांग बनाकर आता है। पर हम तुझे पहचान लेते हैं कि ये तू ही है ।"
" कभी कोई ऐसा स्वांग बना की हम तुझे पहचान न सकें। यदि तूने ऐसा किया तो मैं तुझे 100 ₹ इनाम दूँगा "
बहुरूपिये ने राजा की आज्ञा स्वीकार कर ली।
कुछ समय बाद बहुरूपिया दरबार में नहीं दिखाई दिया, राजा और दरबारियों ने भी विशेष ध्यान नहीं दिया। सभी ने सोचा कहीं चला गया होगा , घूम घाम कर फिर आ जायेगा।
राजा के राज्य में , नगर से 40--50 किमी दूर एक नदी बहती थी। नदी के उस पार घना जंगल था, जहां राजा कभी कभी शिकार खेलने जाया करते थे।
नदी के इस पार एक छोटा सा गाँव था। एक दिन गाँव के एक किसान ने देखा, कि नदी किनारे बरगद के विशाल पेड़ के नीचे एक साधु- महात्मा आसन लगाए बैठे हैं। बदन पर मात्र एक लँगोटी है। जटा-जूट धारी हैं, शरीर पर भस्म लगा हुआ है, पास में धूनी जल रही है।
किसान ने साधु के पास जाकर दंडवत प्रणाम किया।
साधु ने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाये, पर बोले कुछ नहीं। किसान समझ गया कि साधु का मौन व्रत है, मौनी बाबा हैं।
किसान ने जब गाँव में जाकर गाँववालों को बताया तो सभी साधु के दर्शन के लिए आने लगे। कुछ लोग साधु के लिए दूध, फल इत्यादि भी लेकर आये साधु ने थोड़ा ग्रहण कर शेष सब लोगों में प्रसाद रूप में बँटवा दिया।
किसी किसी ने साधु-महात्मा के चरणों में कुछ रुपये पैसे भी चढ़ाए पर साधु ने न उनकी ओर देखा न छुआ !!
ग्रामीणों ने स्वयं को धन्य माना।
सभी ने मिलकर साधु के लिए एक झोपड़ी बना दी, हालाँकि साधु के पास दंड, कमंडल, लँगोटी के अतिरिक्त कुछ था ही नहीं, और न ही किसी का दिया कुछ लेते थे। जो भी कुछ कोई लाता, तत्काल उपस्थित जन में प्रसाद स्वरूप वितरित करवा देते।
साधु की ख्याति चारों ओर फैलने लगी। लोग दूर दूर से दर्शन के लिए आने लगे। साधु सब का दुःख सुख मौन रहकर सुनते, सहानुभूति जताते, आगंतुकों को आशीर्वाद देते मगर ??? बदले में कुछ भी स्वीकार नहीं करते।
धीरे धीरे, कुछ ही दिन में, साधु की प्रसिद्धि उस देश के राजा के दरबार में भी पहुँच गयी। दरबारियों ने राजा से आग्रह किया , " महाराज !! हमें भी ऐसे महान साधु के दर्शनों का सौभाग्य मिलना चाहिए ।"
सभी दरबारियों ने हाँ में हाँ मिलाई। राजा भी सबका मन देखकर तैयार हो गए। उधर जब रानियों ने सुना तो वे भी राजा से आग्रह कर साधु के दर्शनों के लिए तैयार हो गईं।
सब तैयारियों के साथ, राजा, रानियां, दरबारी, रक्षक सैन्य दल, सभी हाथी, घोड़े, पालकी, रथों पर सवार हो चल दिये।
गाँव की सीमा पर पहुँचते ही राजा, रानियाँ, मंत्री इत्यादि सवारियों से उतर के साधु के सम्मान में पैदल नदी तट की ओर चल दिये। पीछे पीछे दास दासियाँ, सोने के थाल में नाना प्रकार के फल, मिठाई, स्वर्ण मुद्राएं भरकर, रेशमी वस्त्रों से ढक कर चल रहे थे।
राजा, रानियों, मंत्रियों ने साधु को विनम्रता से प्रणाम किया। राजा के इशारे पर दास दासियों ने साधु के पास सोने के थाल रख कर उनपर ढँके रेशमी वस्त्र हटा दिए । उपस्थित ग्रामीण आश्चर्य चकित थे कुछ थाल स्वर्ण मुद्राओं से भरे थे तो शेष नाना प्रकार के फलों से।
साधु ने एक नजर उन वस्तुओं पर डाली, आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ ऊपर उठाया। साधु के इशारे पर सभी उपहार उपस्थित जनों में प्रसादस्वरूप बँटवा दिए।
राजा और मंत्रियों ने ऐसे वीतराग, अपरिग्रही, त्याग के मूर्तिमान स्वरूप संत के दर्शन पाकर, स्वयं को धन्य माना। साधु का आशीर्वाद ले सभी प्रसन्न चित्त नगर को वापस लौट चले।
एक दो दिन बाद वे साधु नदी तट के अपने स्थान से न जाने कहाँ गायब हो गए। ग्रामीणों ने अनुमान लगाया कि अत्यधिक प्रसिद्धि से महात्मा जी के भजन--भाव मे विघ्न होने लगा था, इसीलिए कहीं चुप चाप चले गए।
2--4 दिन बाद राज दरबार में बहुरूपिया पहुँचा और राजा को प्रणाम कर बोला, " महाराज ! अब दीजिए मेरा 100 ₹ का इनाम ! "
राजा बोले, " क्यों क्या किया है तूने ? कैसा इनाम ? "
" महाराज ! आपने ही तो मुझसे कहा था कि कोई ऐसा स्वांग बना कि हम तुझे पहचान न पाएं, तो तुझे 100 ₹ इनाम देंगे। "
अच्छा !! " तो क्या किया है तूने ? जो मैं तुझे इनाम दूँ ?"
" महाराज !! वो गाँव में नदी किनारे का साधु, मैं ही तो था। "
राजा और सारा दरबार एक क्षण के लिए सन्न रह गया !!
दूसरे क्षण राजा बड़ी जोर से से हँसे, " अरे वो साधु तू था ? इस बार तो हम सब को खूब चकमा दिया।"
मंत्री जी, " इसे 100 ₹ इनाम में दीजिये। "
अचानक राजा चौंके, और बहुरूपिये से बोले, " एक बात समझ में नहीं आयी ? उस दिन नदी किनारे हम तुझे देने के लिए 1000 स्वर्ण मुद्राएँ ले गए थे ! उसे तो तूने छुआ नहीं ? आज इनाम के 100 ₹ लेने चला आया ? "
बहुरूपिये ने कहा, " महाराज ! यदि मैं वो 1000 स्वर्ण मुद्राएँ ले लेता तो साधु का वेश कलंकित हो जाता । "
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राजा और दरबारियों की आँखें अश्रुपूरित हो उठीं, बहुरूपिये की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा को देखकर।
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आज इस कलियुग में, सैकड़ों धर्म के धंधेबाज, दुकानें सजाए बैठे हैं, भगवान राम-सीता की फुलवारी में भेंट और स्वयंवर के प्रसंग, भगवान श्री कृष्ण की रासलीला के लोक लुभावन प्रसंग, भजन सुना कर कथावाचक बेतहाशा धन बटोर रहे हैं।
आलीशान गाडियाँ, कोठियाँ एयर कंडिशन्ड कमरे, विशाल पलंगों पर ऐशो आराम की जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं। ऐसे तथाकथित साधु संत, साधु के वेश को कलंकित ही तो कर रहे हैं, और सनातन हिन्दू धर्म को रसातल में ले जा रहे हैं।
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